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कौन है रोसड़ा की दुर्गति का जिम्मेदार?

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मोहम्मद आलम 

कभी बिहार के मानचित्र पर गौरव और विकास की पहचान रखने वाला रोसड़ा आज उपेक्षा और बदहाली का प्रतीक बन गया है। पटना के बाद अगर कहीं नगर पालिका की गूंज थी तो वह रोसड़ा थी। यहां लोकसभा क्षेत्र था, सिंघिया जैसी सशक्त विधानसभा थी, अनुमंडल की पहचान थी। लेकिन राजनीति की चाल और जनप्रतिनिधियों की बेरुख़ी ने धीरे-धीरे सब छीन लिया।आज हालत यह है कि वही रोसड़ा और उसके लोग अपने हक़—रुसेरा घाट रेलवे स्टेशन पर ट्रेनों के ठहराव—के लिए सड़कों पर उतरने और आंदोलन करने को मजबूर हैं।

छीनी गई पहचान, टूटा गौरव

रोसड़ा लोकसभा क्षेत्र खत्म कर समस्तीपुर में मिला दिया गया।सिंघिया विधानसभा मिटा दी गई।नगर पालिका को नगर परिषद का दर्जा तो मिला, लेकिन विकास वहीं का वहीं ठहर गया।यानी, रोसड़ा की ताकत, उसकी अस्मिता और उसका गौरव राजनीतिक समीकरणों की भेंट चढ़ा दिया गया।

बदहाली की जीती-जागती तस्वीररो रोसड़ा शहर की आज की हालत किसी से छिपी नहीं है।लोग अच्छी सड़क पर चलने के लिए तरस रहे हैं। गड्ढे और धूलभरी सड़कें शहर की पहचान बन चुकी हैं।जाम की समस्या ने आमजन का जीना मुहाल कर दिया है। बाईपास की कोई व्यवस्था नहीं, जिससे पूरा शहर घंटों जाम में जकड़ा रहता है। शिक्षा की हालत बदतर है। कई सरकारी स्कूलों में ताले लटके हैं, कई स्कूल जर्जर इमारतों में सिसक रहे हैं। हालात ऐसे कि तीन कमरे में आठ क्लास तक के बच्चे ठुंसकर पढ़ने को मजबूर हैं। परीवहन व्यवस्था की भी हालत दयनीय है। शहर से एक भी सरकारी बस का संचालन नहीं है, जिससे आम जनता को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।क्या यह विकास कहलाता है? क्या यह उस रोसड़ा की तस्वीर है, जिसने कभी बिहार में अपनी अलग पहचान बनाई थी?

सवाल लाजिमी है—जिम्मेदार कौन?

क्या यह सियासी दलों की बेरुख़ी का नतीजा है?या चुने गए नेताओं की खामोशी ने रोसड़ा की आवाज़ दबाई?आखिर क्यों जब-जब फैसले हुए, रोसड़ा को ही हाशिए पर धकेला गया?

रोसड़ा के युवाओं ने दी नई उम्मीद

हालात चाहे जैसे हों, लेकिन अब रोसड़ा की जनता खामोश नहीं है। रुसेरा घाट रेलवे स्टेशन पर ट्रेन ठहराव की मांग को लेकर युवाओं ने जो आंदोलन छेड़ा है, वह केवल एक स्टेशन या ठहराव का सवाल नहीं, बल्कि रोसड़ा की पहचान और अधिकार बचाने की लड़ाई है।आज हजारों की संख्या में युवा सड़कों पर उतर रहे हैं। कवि, बुद्धिजीवी और आम जनता उनके साथ खड़े हैं। यह संकेत है कि रोसड़ा की नई पीढ़ी अब अपनी विरासत को बचाने के लिए संघर्ष करने को तैयार है।

नतीजा साफ है।

अगर राजनीति और सत्ता के गलियारों ने अब भी रोसड़ा की अनदेखी की, तो जनता चुप नहीं बैठेगी। आने वाली पीढ़ियां पूछेंगी—इतिहास में नाम रखने वाला शहर बर्बादी तक कैसे पहुंचा और आखिर जिम्मेदार कौन था?”रोसड़ा का यह आंदोलन एक ठहराव की मांग से कहीं आगे बढ़कर स्वाभिमान और अस्तित्व की लड़ाई बन चुका है। और यही लड़ाई आने वाले कल में रोसड़ा की नई पहचान गढ़ेगी।

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